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वैदिक कालीन शिक्षा

विषय वस्तु

  • प्रस्तावना
  • वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ
  • वैदिक कालीन शिक्षा का उद्देश्य
  • वैदिक कालीन शिक्षा की विधि
  • वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएं
  • निष्कर्ष

प्रस्तावना

वैदिक साहित्य मे शिक्षा से आशय विद्या, बोध और विनय से होता था अर्थात् वेदों के अनुसार शिक्षा का अर्थ ज्ञान अथवा विद्या की प्राप्ति है। वेदों के आधार पर शिक्षा ज्ञान, आत्मा तथा ब्रह्रा की खोज है। शिक्षा का उद्देश्य आत्मानुभूति व आत्मबोध है। वेदों के अनुसार शिक्षा पूर्णता तक पहुँचाने का सद् मार्ग है। वेदों को समस्त ज्ञान का कोश माना गया है। वेदों मे शिक्षा को मोक्ष का साधन भी माना गया है–” सा विद्या या विमुक्तये।” 

यहाँ शिक्षा विमुक्ति का साधन थी। यह मानव हेतु एक ‘स्व-पहचान’ की अनुभूति थी, जिससे कि वह जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। 

भारतीय शैक्षिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं का इतिहास विश्व मे सबसे प्राचीन है। इसका अस्तित्व विगत 5000 वर्षों से भी ज्यादा सुदूर अतीत में दृष्टिगोचर होता है। हम सिर्फ आत्माभिमान मे ही ऐसा नही मान बैठे बल्कि कई अंग्रेजी विद्वानों ने भारतीय शिक्षा के स्वरूप को इस तरह उकरने का प्रयत्न किया है जिससे कि इसके गौरवान्वित अतीत की पुष्ठि होती है। 

एफ. डब्ल्यू. थामस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- ‘द हिस्ट्री एंड प्रोस्पेक्टस ऑफ ब्रिटिश एजुकेशन इन इंडिया’ में अपने विचारों को उद् धृत करते हुए लिखा है,” भारत मे शिक्षा कोई नवीन प्रत्यय नही है। ऐसा कोई भी विश्व का देश नही है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम इतने प्राचीन समय से शुरू हुआ हो अथवा जिसने इतना सहज, स्थायी तथा शक्तिशाली प्रभाव अपनी आगामी पीढ़ियों पर छोड़ा हो।” 

यह चिर-संरक्षित शैक्षिक संस्कृति तथा अपनी अस्मिता को इसलिए बचा पायी क्योंकि यह धर्म से अनुप्राणित थी, सांसरिक कष्टों के शमन हेतु नही, बल्कि पारलौकिक कष्टों के निदान का माध्यम थी। यह मात्र मानव निर्माण मे नही ‘महामानव’ की संकल्पना से विभूषित थी। इसके उद्देश्य व्यक्ति, समाज, राष्ट्रोत्थान की संकीर्णता से ऊपर विश्व कल्याण एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के महाबोध से प्रतिध्वनित होते थे। 

हमारा प्राचीन भारतीय वाड़्गमय तथा साहित्य ऐसे उद्धरणों से भरा पड़ा है जहाँ शिक्षा के समस्त पक्षों पर महर्षियों, मनीषियों, चिंतको ने अपने विचार प्रस्तुत किये है। इस आधार पर शिक्षा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप की संकल्पना सरल तथा सुबोध हो जाती है साथ ही उसकी तार्किक तथा वैज्ञानिक पुष्टि भी। 

भारतीय प्राचीन शिक्षा का स्वरूप वर्तमान जीवन की तैयार अथवा जीने की कुशलता जैसे तुच्छ गुणों की सीमाओं में न बँधकर मानव के धार्मिक, आध्यात्मिक उत्थान की शिक्षा थी, जो पारलौकिक जीवन हेतु मनुष्य को तैयार कर रही थी। यह तात्कालिक समय सीमाओं से परे त्रिकालदर्शी तथा शाश्वत थी, जिसकी अमर धारा आज तक प्रवाहित है। 

वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ

इस प्रकार की शिक्षा का तात्पर्य उस ज्ञान से है जो वेदो में सुरक्षित है तथा जो उस काल में प्रयोग किया जाता था। आपकी बेहतर जानकारी के लिए बता दे की भारत की आधारभूत संस्कृति का ज्ञान इन्हीं प्राचीन धर्म–ग्रन्थों में सुरक्षित है।

वैदिक शिक्षा-प्रणाली की ख़ास विशेषता थी गुरुकुल [ शाब्दिक अर्थ शिक्षक का घर ‘] की प्रणाली. छात्रों को शिक्षा के पूरे काल के लिए शिक्षक और उनके परिवार के साथ रहना आवश्यक था. कुछ गुरुकुल एकांत वन-क्षेत्रों में होते थे, लेकिन सिद्धांत एक ही था – विद्यार्थियों को गुरु (शिक्षक) / गुरु और उनके परिवार के साथ रहना होता था. यह प्रणाली लगभग 2500 वर्षों तक यथावत चलती रही. पाठशालाओं तथा शिक्षण संस्थाओं का विकास बहुत बाद में हुआ.

शिक्षा का उद्देश्य:

शिक्षा के उद्देश्य का पहला उल्लेख ऋग्वेद के 10 वें मंडल में पाया जाता है. इस मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि विद्या का उद्देश्य वेदों तथा कर्मकांड के ज्ञान के अतिरिक्त समाज में सम्मान प्राप्त करना, सभा-समिति में बोलने में सक्षम होना, उचित-अनुचित का बोध आदि है. इससे प्रतीत होता है की पूर्व वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य व्यावहारिक थे. बाद में, उपनिषद काल में, ज्ञान का उद्देश्य अधिक सूक्ष्म हो गया. विद्या को दो भागों में बांटा गया – परा विद्या और अपरा विद्या. अपरा विद्या में प्रायः समस्त पुस्तकीय तथा व्यावहारिक ज्ञान आ गया. केवल ब्रह्म विद्या को परा विद्या माना गया. परा विद्या श्रेष्ठ मानी गई क्योंकि उससे मोक्ष प्राप्त होता है. मोक्ष शिक्षा का अंतिम उद्देश्य हो गया. लेकिन यह लक्ष्य आदर्श ही रहा होगा, न की व्यावहारिक, क्योंकि मोक्ष सभी के लिए साध्य नहीं हो सकता. इतिहासकार ए.एस.अल्तेकर ने वैदिक शिक्षा के व्यावहारिक उद्देश्य बताये हैं जो निम्नलिखित हैं.

  1. चरित्र निर्माण:

    सत्यवादिता , संयम , व्यक्तिगत शील , सफाई , शांत स्वभाव और उदारता आदि अच्हे चरित्र के गुण किसी भी पेशे – पुरोहित , शिक्षक , चिकित्सक , राजसेवक, व्यापारी या सैनिक – के लिए बुनियादी आवश्यकता के रूप में प्राचीन ग्रंथों में निर्धारित किये गए हैं. शिक्षा का उद्देश्य इन गुणों का विकास करना था. मनुस्मृति में कहा गया है कि निर्मल चरित्र का ब्राह्मण सभी वेदों का ज्ञान रखने वाले दुश्चरित्र ब्राह्मण से अच्छा होता है. शिक्षा आरम्भ करने के पूर्व उपनयन संस्कार होता था जिसमें भावी विद्यार्थी को नैतिक आचरण के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया जाता था. इसी तरह शिक्षा के समापन पर भी गुरु उपदेश देता था. उदाहरण के लिए तैत्तिरीय उपनिषद से दीक्षांत भाषण एक अंश उद्धृत है :

    सच बोलो . धर्म का आचरण करो . वेदों का प्रतिदिन अभ्यास करो… माता को देवतुल्य समझो. पिता को देवतुल्य समझो. गुरु को देवतुल्य समझो. अतिथि को देवतुल्य समझो…”

    2) व्यक्तित्व का विकास:

    प्रत्येक शिक्षार्थी को आत्मनिर्भरता , आत्म – संयम और जीवन में वर्ण और आश्रम के अनुरूप आचरण करने का कौशल सिखाया जाता था. विद्यार्थी भिक्षा मांगकर और शारीरिक श्रम करके अपना और गुरु के परिवार का भरण-पोषण करते थे. इससे आत्म-निर्भरता उत्पन्न होती थी. संयम विद्यार्थी-जीवन ही नहीं समस्त जीवन का अनिवार्य अंग था और शिक्षा जीवन में इस पर बहुत बल दिया जाता था.. अपने वर्ण [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र] से सम्बंधित कार्य कुशल ढंग से कर पाने की सामर्थ्य शिक्षा द्वारा दी जाती थी. साथ ही यह भी सिखाया जाता था कि विभिन्न आश्रमों [गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास] में किस तरह आचरण करना होगा. अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में कहा गया है की गुरु शिक्षार्थी को दुबारा जन्म देता है, अर्थात उसका मानसिक , नैतिक और आध्यात्मिक कायाकल्प कर देता है.

चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त-चरित्र-निर्माण के लिए छात्रों के स्वभाव और संस्कारों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए छात्रों के उचित पालन-पोषण, शिक्षा व अनुकूलन आदि परिस्थितियों की व्यवस्था की जाती थी।

3) कार्य-क्षमता और नागरिक जिम्मेदारी का विकास:

शिक्षा को गृहस्थ जीवन की भूमिका माना जाता था. गृहस्थ के अतिरिक्त सभी अन्य आश्रमों वाले व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए गृहस्थ पर निर्भर होते थे. इस तरह गृहस्थ न केवल अपने परिवार बल्कि अन्य वर्णों का भी पालन करता था. गुरु शिक्षार्थी को समाज में अपनी यह भूमिका निभाने में सक्षम बनाता था. इसके अतिरिक्त समाज को चलाने के लिए आवश्यक राजसेवक, न्यायाधीश, व्यापारी, पुरोहित तथा अन्य कुशल व्यक्ति गुरुकुलों द्वारा ही तैयार किये जाते थे.

4) विरासत और संस्कृति का संरक्षण:

आरम्भ में आर्यों को लिपि का ज्ञान नहीं था. समाज के सामने चुनौती थी की किस तरह मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेदों को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखा जाय. भारत के प्राचीन गुरुकुलों की यह विलक्षण उपलब्धि थी कि वैदिक साहित्य लगभग दो हजार साल तक मौखिक रूप में जीवित ही नहीं, अक्षुण्ण भी रखा.

वैदिक शिक्षा व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि पर बल देती थी. शिक्षित व्यक्ति को साहित्य, कला, संगीत आदि की समझ होनी चाहिए. उसे जीवन के उच्च आदर्शों का ज्ञान भी होना चाहिए. मात्र जीविकोपार्जन शिक्षा का उद्देश्य नहीं है. कालिदास ने कहा है कि जो विद्या का उपयोग केवल कमाई के लिए करते हैं वे विद्या के व्यापारी हैं जिनकी विद्या बिकाऊ माल भर है.

पूर्वजों की परंपरा और संस्कृति की रक्षा शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य था. चूँकि एक ही व्यक्ति विद्या की सभी शाखाओं में निष्णात नहीं हो सकता था, अतः वैदिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विशेषज्ञता का विकास हुआ. साथ ही समस्त देश में कुछ ऐसे आधारभूत मूल्यों की स्थापना हुई जो आज भी सांस्कृतिक एकता के आधार हैं.

वैदिक कालीन शिक्षा की विधि

प्रातिशाख्य (वेदांग ‘शिक्षा’ से सम्बंधित ग्रन्थ ) ग्रंथों में वैदिक शिक्षा पद्धति का विवरण मिलता है। इसमें प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से पढ़ाया जाता था। अर्थात गुरु एक बार में एक छात्र को पढाता था। छात्र को एक दिन में में दो या तीन वैदिक ऋचाएं याद करनी होती थीं। छात्र को गुरु के निर्देश के अनुसार शब्दों का सही उच्चारण करना होता था और ऋचाओं को ठीक उसी ढंग से बोलना या गाना होता था जो परम्परा से चला आता था।


यहाँ लिपि का विकास होने के बाद भी वैदिक मन्त्रों का मौखिक अध्यापन जारी रहा क्योंकि उच्चारण और गायन की मूल परम्परा को मौखिक रूप में ही पूरी तरह सुरक्षित रखा जा सकता था। याद करके सीखने का तरीका केवल वैदिक संहिताओं के लिए प्रयोग होता था। अन्य विषयों को पढ़ाने के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, शास्त्रार्थ इत्यादि का सहारा लिया जाता था। छात्रों की संख्या कम होती थी ताकि गुरु प्रत्येक छात्र पर पर्याप्त ध्यान दे सके।

वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएं

प्राचीन भारतीय शिक्षा के आदर्शों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु तत्कालीन ब्राह्रणों, शिक्षकों ने जिस विशिष्ट शिक्षा-प्रणाली का विकास किया, उसका गुणगान करते हुए डाॅ. एफ. ई. केई ने लिखा है,” ब्राह्मण शिक्षकों ने जिस शिक्षा-प्रणाली का विकास किया, वह न सिर्फ साम्राज्यों के पतन तथा समाज के परिवर्तनों से अप्रभावित रही, वरन् उसने हजारों वर्षों तक उच्च शिक्षा की ज्योति को प्रज्जलिय रखा।” वैदिक कालीन या वैदिक युगीन शिक्षा की निम्नलिखित विशेषताएं है–

1. शिक्षा प्रणाली 

वैदिक काल मे छात्र माता-पिता का घर छोड़कर गुरूकुल मे रहकर ही शिक्षा प्राप्त किया करते थे। गुरू मौखिक प्रवचन द्वारा शिक्षा प्रदान करते थे और छात्र सुनने के बाद मनन तथा चिन्तन किया करते थे। उस समय मौखिक पद्धति का प्रचलन हुआ करता था। कभी-कभी वाद-विवाद करना, कथा प्रणाली का प्रयोग, गृहकार्य देना आदि का प्रयोग भी किया जाता था। 

2. विद्यालय भवन 

प्राचीन काल में छात्रों हेतु किस तरह के भवन थे, इस विषय मे किसी प्रकार की ठोस जानकारी उपलब्ध नही है अतः डाॅ. अल्तेकर का यह मत सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है,” अच्छे मौसम में कक्षाएं वृक्षों की छाया मे होती होंगी, पर वर्षा-ऋतु मे किसी तरह के साधारण आच्छादन की व्यवस्था जरूर होगी। जहाँ तक देवालयों मे शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों का प्रश्न है, वहाँ उनके लिए भव्य तथा विशाल भवन थे।”

3. गुरूकुल प्रणाली 

प्राचीन भारतीय शिक्षा की एक विशेषता गुरूकुल-प्रणाली थी। गुरूकुल किसी सुंदर प्राकृतिक स्थान  पर साधारणतः किसी ग्राम अथवा नगर के निकट होते थे, ताकि छात्रों की दैनिक जरूरतों की पूर्ति हो सके तथा उन्हें भिक्षाटन की सुविधा रहे छात्र अपने गुरू के पास उसके कुल के सदस्य के रूप मे रहकर ज्ञान का अर्जन करते थे तथा उससे वास्तविक जीवन की शिक्षा प्राप्त करते थे। वे गुरू के उच्च विचारों तथा आदर्शों को अनुकरण करके, अपने श्रेष्ठ जीवन का निर्माण करते थे। 

4. नियंत्रण मुक्त 

इन आश्रमों तथा गुरूकुलों पर केवल आचार्य का ही नियंत्रण रहता था। ये आश्रम तथा गुरूकुल बाहरी नियंत्रण तथा हस्तक्षेप से पूरी तरह से स्वतंत्र रहते थे। किसी व्यक्ति विशेष, दल, समूह, राज्य तथा सरकार के नियंत्रण तथा हस्तक्षेप से सदैव दूर रहते थे। प्रत्येक आचार्य अपने आश्रम अथवा गुरूकुल का सर्वेसर्वा होता था। इतना ही नही, प्रत्येक आश्रम जातीय तथा सामुदायिक प्रभावों से भी बहुत दूर था। 

5. वैदिक शिक्षा शुरू करने की आयु 

डाॅ. ए. एस. अल्तेकर ने लिखा है,” वैदिक शिक्षा उपनयन संस्कार के बाद शुरू होती थी तथा कई बातों मे आधुनिक माध्यमिक शिक्षा के समान थी। अतः उसे शुरू करने की आयु साधारणतः 8 अथवा 12 वर्ष के बीच में मानी जाती थी। मनु के अनुसार,” ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य छात्रों का उपनयन संस्कार क्रमशः 8, 11, 12 वर्ष की आयु तक हो जाना चाहिए। (शुद्रों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नही था) मनु ने उपनयन की उच्चतम आयु भी निर्धारित कर दी थी जिसके बाद यह संस्कार नही हो सकता था। यह उच्चतम आयु ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य छात्रों के लिए क्रमशः 16, 22 और 24 थी। 

यहाँ इस बात का उल्लेख कर देना असंगत न होगा कि जिस तरह वैदिक शिक्षा प्राप्त करने हेतु “उपनयन संस्कार” अनिवार्य था, उसी तरह सैनिक शिक्षा, औषधि शास्त्र की शिक्षा आदि के लिए भी था। 

6. अध्ययन की अवधि 

प्राचीन काल में अध्ययन की अवधि प्रायः 12 वर्ष की थी। इस अवधि मे छात्र सिर्फ एक वेद का अध्ययन कर सकते थे। अगर वे एक से ज्यादा वेदों का अध्ययन करना चाहते थे, तो उनको हर वेद के लिए 12 वर्ष व्यतीत करने पड़ते थे। 12, 24, 36, तथा 48 की आयु तक अध्ययन करने वाले छात्र क्रमशः स्नातक, बसु, रूद्र तथा आदित्य कहलाते थे। साहित्य तथा अर्थशास्त्र के छात्रों के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष की थी। 

7- उपनयन संस्कार-उपनयन

उपनयन संस्कार-उपनयन का शाब्दिक अर्थ गुरुकुल प्रणाली हैपास ले जाना’; दूसरे शब्दों में, ज्ञान-प्राप्ति के लिए छात्र का नियमित दिनचर्या का सिद्धान्त गुरु के पास पहुँचना। उपनयन के बाद बालक का नवीन जीवन पाठ्य-विषयों की व्यापकता प्रारम्भ होता था। छात्र गुरु के पास जाकर कहता था-“मैं ज्ञानार्जन दण्ड का सिद्धान्त करने और ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करने के लिए आपके निकट  चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त आया हूँ। मुझे ज्ञान प्रदान करें।” गुरु उपनीत बालक से प्रश्न करता * गुरु-शिष्य सम्बन्ध था-“तुम किसके ब्रह्मचारी हो?” बालक उत्तर देता छात्र जीवन सम्बन्धी नियम था—“आपका’, तत्पश्चात् गुरु गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था और शिक्षा

वैदिक विद्यालय

वैदिक विद्यालय एक स्वयंसेवी संस्था है जो वेदों के ज्ञान, भारतीय भाषाओं और भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में स्वार्थरहित लगी है। इसका लक्ष्य है भारतीय भाषाओं संस्कृत, हिन्दी, तमिल, तेलुगु, मराठी और अन्य प्रमुख भाषाओं का बढ़ावा देना। संस्था सप्ताहांत और सांय कक्षाओं, स्कूलों में वैकल्पिक विषय, भाषा दिन और उत्सवों (जैसे संस्कृत दिवस, हिन्दी दिवस, तमिल दिवस, वार्षिक उत्सव आदि) द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रतिबद्ध है।

इसके अलावा दूसरे ज्ञान के विषय जैसे गणित, रेखागणित, बीजगणित, नक्षत्रविद्या, शिल्प इत्यादि का बढ़ावा, संस्कृत को फिर से बोलचाल की भाषा की तरह जीवित करना।

सप्ताहांत और सांय कक्षा विषयों जैसे योगनृत्य यादि का ज्ञान एक जगह और समय में प्रदान करना। स्थानीय स्कूलों के साथ मिलकर इन विषयों को स्कूलों के नियमित पाठ्यक्रम में सम्मिलित करवाना। वैदिक सिद्धान्तों (जैसे वैदिक गणित) को स्कूलों के नियमित पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना। विश्व में भारतीय संस्कृति की समझ पैदा करना।

इस समय विद्यालय की अमेरिका में सात नगरों में कक्षाएं चलती हैं। इस समय संस्था में निम्न विषयों की कक्षाएं चलती हैं :

भाषाएं: संस्कृत, हिन्दी, तमिल, तेलुगु, मराठी, गुजराती, कन्नड, पंजाबी और मलयालाम

कला: कला (रंगना, चित्र बनाना), भरतनाट्यम्, आधुनिक नृत्य, कर्णाटक संगीतहिन्दुस्तानी संगीत,

योग, ध्यानयोग

वैदिक गणित/वैदिकगणित/भारतीय गणित

7. पाठ्यक्रम 

समय-क्रम में वैदिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों का समावेश हुआ:

(1) चार संहितायें : ऋक, यजु:, साम और अथर्व

(2) ब्राह्मण

(3) आरण्यक

(4) उपनिषद

(5) छ: वेदांग : शिक्षा , कल्प , निरुक्त , व्याकरण, छंद, ज्योतिष


पहले चारों को मिलाकर वेद बनते हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद. प्रत्येक वेद में एक संहिता और एक या अधिक ब्राह्मण ,आरण्यक तथा उपनिषद हैं . उदाहरण के लिए , ऋग्वेद में ऋक संहिता, दो ब्राह्मण , दो आरण्यक और दो उपनिषद है . संहितायें सबसे प्राचीन हैं. उनमें अधिकतर विभिन्न देवों की प्रार्थनाएं हैं. ब्राह्मण यज्ञ-याग की दृष्टि से वेदों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं. आरण्यक वैदिक यज्ञादि कर्मों के तत्त्व का विचार करते हैं. उपनिषद दर्शन के ग्रन्थ हैं. इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है क्योंकि ये ग्रन्थ वेदों के अंत में आते हैं.
वेद:
ऋग्वेद वेदों में प्राचीनतम हैं. इसमें दस मंडल (विभाग) हैं, कुल मिलाकर इसमें 1000 से अधिक सूक्त (प्रार्थनाएं) हैं. प्रत्येक सूक्त में कई ऋचाएं (श्लोक) हैं. पूरे ऋग्वेद में लगभग 10000 ऋचाएं हैं.

सामवेद में ऋग्वेद के ही चुने हुए सूक्त हैं पर उनको गायन के उपयुक्त बनाकर प्रस्तुत किया गया है. सामवेद संगीत पर बल देता है. यजुर्वेद में भी अधिकतर सूक्त ऋग्वेद से लिए गए हैं. इस वेद में यज्ञ-पद्धति पर बल दिया गया है. अथर्ववेद की विशेषता यह है कि उसमें जादू-टोने से सम्बंधित बहुत सी सामग्री पाई जाती है जो संभवतः आर्येतर स्रोतों से आयी है. इसी कारण से अथर्ववेद को बहुत समय तक वेद माना ही नहीं जाता था.

छः वेदांग:

(क) शिक्षा – यह ध्वनि और उच्चारण की विवेचना करने वाला शास्त्र था.

( ख) कल्प – यह यज्ञ अनुष्ठान की पद्धति का शास्त्र था.



(ग) निरुक्त – इस शास्त्र में वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति की व्याख्या की गयी है.

(घ) व्याकरण – इसका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है.

(ई) छंद – इसका अर्थ भी नाम से ही स्पष्ट है.

(च) ज्योतिष – वैदिक काल में ज्योतिष का अर्थ मुख्यतः नक्षत्रों और ग्रहों का अध्ययन था. राशि की अवधारणा नहीं थी. फलित ज्योतिष भी नहीं था.


धर्मेतर विषय

वैदिक काल के अंत तक दर्शन , गणित, बीजगणित , ज्यामिति , राजनीति शास्त्र , लोक प्रशासन , युद्ध-कला , तीरंदाजी , तलवारबाजी , ललित कला और चिकित्सा जैसे धर्मनिरपेक्ष विषय पाठ्यक्रम में शामिल हो गए थे. वैदिक काल के बाद कई अन्य विषय शामिल हुए, जैसे:

• षट दर्शन – पूर्व मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक

• तर्कशास्त्र

• काव्यशास्त्र ,

• साहित्य ,

• इंजीनियरिंग ,

• वास्तुशास्त्र

• चिकित्सा,

• ज्योतिष

इन सभी शास्त्रों की शिक्षा के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है परन्तु चिकित्साशास्त्र की शिक्षा के बारे में पर्याप्त सामग्री चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में उपलब्ध है. इन ग्रंथों के अनुसार यह शिक्षा प्रवीण वैद्यों द्वारा दी जाती थी. पूरा पाठ्यक्रम छः वर्षों में समाप्त होता था. चिकित्सा शास्त्र की आठ शाखाये होती थीं. इस शिक्षा के लिए अलग से उपनयन संस्कार की व्यवस्था थी.

यह अनुमान किया जा सकता है की चिकित्सा की तरह अन्य महत्वपूर्ण लौकिक विषयों की शिक्षा भी इसी प्रकार विशेषज्ञों द्वारा दी जाती होगी.



कृषि, पशुपालन , चिनाई , बढ़ईगीरी , बुनाई , लोहार की कला, कुम्हार का काम, अन्य प्रकार के बर्तन बनाने की कला,हथियार बनाने की कला इत्यादि उपयोगी विद्याएँ शुरुआत में परिवारों में और मास्टर कारीगरों द्वारा सिखायी जाती थीं. कुछ वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन जब संगठित और बड़े पैमाने पर होने लगा तो व्यावसायिक समुदायों ने विशेष कला या शिल्प में युवाओं के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी ले ली .

पाठ्यक्रम मे राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष एवं तर्कविज्ञान को शामिल किया जाता था। नृत्य, कला, संगीत व अभिनय आदि को भी स्थान दिया गया था। स्वास्थ्य शिक्षा का पाठ्यक्रम में विशेष स्थान होता था। 

8. परीक्षाएँ 

परीक्षाएँ मौखिक रूप से प्रतिदिन होती थी। दूसरा पाठ पढ़ाने से पहले पढ़ाए गये पाठ की मौखिक परीक्षा ली जाती थी। 

9. शिक्षा-सत्र छुट्टियाँ 

शिक्षा-सत्र, श्रावण मास की पूर्णिमा को ‘उपाकर्म’ ‘श्रावणी’ समारोह से शुरू होता था तथा पौष मास की पूर्णिमा को ‘उत्सर्जन’ समारोह के साथ खत्म होता था। इस प्रकार शिक्षा-सत्र की अवधि पाँच माह की थी। 

आधुनिक समय के समान प्राचीन काल मे भी शिक्षा-संस्थाओं मे छुट्टियाँ होती थी। हर मास में एक-एक सप्ताह के अंतर से चार छुट्टियाँ मिलती थी। ज्यादा आयु के छात्रों की बजाय कम आयु के छात्रों को ज्यादा छुट्टियाँ मिलती थी। छुट्टियाँ लंबी नही होती थी क्योंकि आवागमन की कठिनाइयों के कारण छात्र साधारणतः शिक्षा खत्म करके ही घर लौटते थे।

10. निःशुल्क शिक्षा 

वैदिक काल मे गुरूकुलों मे शिष्यों से किसी प्रकार का शुल्क नही लिया जाता था तथा शिष्यों के आवास, भोजन व वस्त्रादि की व्यवस्था निःशुल्क होती थी। इन पर हुये व्यय की पूर्ति समाज के संपन्न वर्ग द्वारा प्राप्त दान, भिक्षाक व गुरूदक्षिणा से होती थी। आज भी संसार के सभी देशों मे एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क है। 

11. कक्षा-नायकीय पद्धति 

प्राचीन भारतीय शिक्षा की एक बहुत महत्वपूर्ण विशेषता कक्षा-नायकीय पद्धति थी। इस पद्धति मे उच्च कक्षाओं के बुद्धिमान छात्र, जिनको नायक कहा जाता था, निम्न कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाते थे तथा इस तरह गुरू के शिक्षण कार्य मे मदद देते थे। इस पद्धति के दो प्रमुख लाभ थे। पहला, शिक्षक की अनुपस्थित मे शिक्षण का कार्य अधिकांश कक्षाओं मे चलता रहता था। दूसरा, कक्षा-नायक कुछ समय के बाद शिक्षण कार्य में प्रशिक्षित हो जाते थे। 

12. अनुशासन 

गुरूकुल मे छात्र पिता-पुत्र की तरह रहते थे। इसलिए छात्र आत्म-अनुशासित होते थे। दण्ड केवल छात्रों को प्रायश्चित स्वरूप दिया जाता था। ‘स्व अनुशासन’ की प्रथा थी। छात्र गुरू के प्रति आज्ञाकारी व विनम्र होते थे। 

13. गुरू शिष्य संबंध 

वैदिक काल मे गुरु-शिष्य संबंध अत्यंत मधुर हुआ करते थे। गुरु-शिष्य पिता-पुत्र की तरह रहते थे। शिष्य अपने अध्ययन काल मे पूर्णरूपेण गुरू के संरक्षण मे रहता था। गुरू शिष्य का आध्यात्मिक पिता माना जाता था। गुरू शिष्य की उसी प्रकार देखरेख करता था जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र की करता है। गुरु-शिष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का प्रयास करता था। आवश्यकता होने पर गुरु अपने शिष्य की सुश्रूषा तथा चिकित्सा भी करता था। गुरू अपने शिष्यों मे अच्छी आदतों का निर्माण करता था। गुरू का प्रयास अपने शिष्यों का शारिरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास रहता था। 

छात्र गुरू के प्रति बड़ी श्रद्धा व सेवा-भाव रखते थे। गुरू की आज्ञा का पालन करना, सेवा करना, दैनिक कार्य करना, भिक्षा माँगना तथा आश्रम की व्यवस्था संबंधी कार्यों में गुरू की सहायता करना छात्रों के प्रमुख कर्तव्य माने जाते थे। 

14. नारी शिक्षा 

वैदिक काल मे कन्याओं का उपनयन होता था, किन्तु बालकों के समान उनके लिए पृथक से गुरूकुल नही थे। फिर भी वैदिक युग मे स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। वे बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा ग्रहण कर सकती थी। बालकों के समान बालिकाएँ भी ब्रह्राचर्य व्रत का पालन करती थी तथा यज्ञों मे भाग लेती थी। 

15. शिक्षा का उद्देश्य 

प्राचीन भारतीय समाज के सभी पक्ष धार्मिक भावनाओं से परिपूर्ण थे। समाज के प्रत्येक पहलू पर धर्म का रंग चढ़ा हुआ था। फलतः शिक्षा भी धर्म के आधार आधारित थी। धर्म के कारण शिक्षा के उद्देश्य भी धार्मिक थे। वैदिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना था। 

डाॅ. राधा कुमुद मुकर्जी के अनुसार,” ज्ञान प्राप्ति केवल ज्ञान-प्राप्ति के लिए ही नही थी और न धर्म का एक अंग ही थी, बल्कि इसका प्रमुख उद्देश्य जीवन का चरम लक्ष्य ‘मुक्ति’ प्राप्त करना था।”

16. शिक्षा का स्वरूप 

प्राचीन समय मे संपूर्ण शिक्षा-धर्म मे अनुप्राणित थी। शिक्षा के आदर्श, उद्देश्य, व्यवस्था, विषय-सामग्री, यहाँ तक की छात्रों का दैनिक जीवन भी धर्म पर अवलंबित था। ज्ञान का अर्जन धर्म के द्वारा तथा धार्मिक कर्तव्य के रूप मे किया जाता था। इस तरह शिक्षा का संपूर्ण कलेवर, धर्म के अभेद्य आवरण से आवृत्त था।

निष्कर्ष

वैदिक शिक्षा सांस्कृतिक दृष्टि पर बल देती थी।इसके मुताबिक शिक्षित व्यक्ति को साहित्य, कला, संगीत आदि की समझ होनी चाहिए, उसे जीवन के उच्च आदर्शों का ज्ञान भी होना चाहिए। पूर्वजों की परंपरा और संस्कृति की रक्षा शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य था। वैदिक शिक्षा से समस्त देश में कुछ ऐसे आधारभूत मूल्यों की स्थापना हुई जो आज भी सांस्कृतिक एकता के आधार हैं। कुछ लोगों के अनुसार आज की शिक्षा प्रणाली में यह एक आऊटडेटेड विचार समझा जा सकता है। वैदिक शिक्षा प्रणाली के अनेक गुण थे। इन गुणों का तत्व आज भी प्रासंगिक है। वैदिककालीन शिक्षा नि:शुल्क थी, गुरुकुल में शिष्यों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। उनके आवास, वस्त्र तथा भोजन की व्यवस्था भी नि:शुल्क होती थी। वैदिक काल की शिक्षा पर होने वाले व्यय की पूर्ति शासन, धनाढ्य लोगों तथा भिक्षाटन एवं गुरु दक्षिणा से की जाती थी। वैदिककालीन शिक्षा द्वारा मनुष्यों का शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक तथा आध्यात्मिक विकास किया जाता था। 

वैदिककालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम व्यापक था। वैदिक काल में मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता था और इसके लिए शिक्षा के पाठ्यक्रम में भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विषयों को सम्मिलित किया जाता था। हमारी आज की शिक्षा में आध्यात्मिक तत्व न होने के कारण हमारे दिलो-दिमाग से सामाजिक संवेदना विलुप्त होती जा रही है। वैदिककालीन शिक्षा में उत्तम शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था। अनुकरण, व्याख्यान, वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर, तर्क, विचार-विमर्श, चिंतन-मनन, सिद्धिध्यासन, प्रयोग, नाटक एवं कहानी इत्यादि वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधियों का विकास किया जा चुका था। इनको पुन: हमारे शिक्षण में शामिल करने की जरूरत है। वैदिक काल में गुरु तथा शिष्यों का जीवन अत्यंत संयमित और अनुशासित होता था। उनकी जीवनशैली सादा जीवन व उच्च विचार पर आधारित थी। वैदिककालीन शिक्षा में गुरु तथा शिष्यों के मध्य मधुर संबंध थे। 

दोनों के मध्य स्नेह तथा श्रद्धा का संबंध था।दोनों एक-दूसरे के प्रति त्याग की भावना रखते थे तथा शिक्षकों के बीच मानस पिता-पुत्र के संबंध थे। क्या आज ऐसे रिश्ते वांछित नहीं हैं? वैदिककालीन शिक्षा में गुरुकुलों का पर्यावरण अति उत्तम था। गुरुकुल प्रकृति के स्वच्छ वातावरण से युक्त स्थलों में होते थे, जहां जन कोलाहल नहीं था तथा जल और वायु शुद्ध प्राप्त होती थी। आज हम छात्रों को किन हालात में शिक्षित कर रहे हैं? वस्तुत: मशीनों के जरिए दी जा रही शिक्षा मनुष्य रूपी छात्रों को असंवेदनशील रोबोट के रूप में विकसित कर रही है। यहां पर सांस्कृतिक शिक्षा का महत्व और भी बढ़ जाता है। वैदिककालीन जीवन पद्धति संस्कार प्रधान थी। वैदिक शिक्षा प्रणाली पूर्णतया दोष रहित थी, ऐसा कहना कठिन है, वैदिककालीन शिक्षा में राज्य का नियंत्रण या उत्तरदायित्व नहीं था। तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था पूर्णत: व्यक्तिगत नियंत्रण में थी, जो पूर्णत: गुरुकुलों तक सीमित थी। अत: इससे जन शिक्षा की अवहेलना होती थी। वैदिककालीन शिक्षा में आय की सुनिश्चित एवं विधिवत व्यवस्था नहीं थी। यद्यपि वैदिककालीन शिक्षा का व्यय राजा, धनी लोग, भिक्षाटन तथा गुरु दक्षिणा से पूरा किया जाता था, किंतु इन सबका कोई निश्चित समय, मात्रा के न होने से असमंजस की स्थिति रहती थी। वैदिक जमाने की तरह आज भी अमरीका और अनेक देशों में उच्च शिक्षा संस्थाओं की रिसर्च फंडिंग अमीर लोग करते हैं, लेकिन हमारे यहां की स्थिति दयनीय है। 

यद्यपि उस समय उत्तम शिक्षा विधियों का विकास हो चुका था, किंतु लिखने की समुचित व्यवस्था का अभाव होने के कारण याद रखने पर विशेष बल दिया जाता था। वैदिककालीन शिक्षा की अनुशासन व्यवस्था अत्यंत कठोर थी। स्वामी दयानंद जी, महात्मा हंसराज जी व महात्मा आनंद स्वामी जी इत्यादि अनेक वैदिक कर्मयोगियों से प्रेरित पूरे देश में कार्यरत डीएवी व आर्य समाज से जुड़ी संस्थाएं वैदिक परचम को शिक्षा के जरिए गतिशील रखने के लिए इस समय डॉ. पूनम सूरी जी (पदमश्री अलंकृत) है, के नेतृत्व में निरंतर अच्छा काम कर रही है। नैतिक मूल्यों में गिरावट को देखते हुए आज वैदिक शिक्षा को औपचारिक रूप से शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग बनाए जाने की जरूरत है। यह शाश्वत सत्य है कि वैदिक शिक्षा के व्यावहारिक उद्देश्य रहे हैं, जिनकी आज बहुत जरूरत है। इनमें चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, कार्यक्षमता और नागरिक जिम्मेदारी का विकास और विरासत व संस्कृति का संरक्षण शामिल हैं।
 

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